साभार लेखिका: रेणु अग्रवाल

हिंदी भाषा एक तार्किक और वैज्ञानिक भाषा है। इसमें जो लिखा जाता है और उसके उच्चारण में कंठ से जो ध्वनि निकलती है, वह समान होती है। हिन्दी भाषा में स्वर और व्यंजन होते हैं। स्वरों के आधार पर बारह खड़ी की मात्राओं का प्रयोग होता है। व्यंजनों को अलग-अलग समूह में रखा जाता है, जो इस बात पर निर्भर होता है, कि उनके उच्चारण में जीभ, तालु और कंठ की कैसी भूमिका होती है। हम सभी जानते हैं कि हमारे वर्ण (अक्षर) मुँह के किस-किस स्थान से बोले जाते हैं।
सामान्यतः एक से उच्चारण का एक ही शब्द होता है। पर समस्या आती है जब हमें ‘श’ और ‘ष’ एक जैसे उच्चारण वाले ही प्रतीत होते हैं। प्रश्न यह उठता है कि भाषा में जब एक ‘श’ उपस्थित था तब दूसरे ‘ष’ की ज़रूरत ही क्यों हुई होगी भला!
हिंदी भाषा के स्वरूप के प्रति हमारे पूर्वजों की बुद्धि प्रशंसनीय है।
दरअसल ‘श’ थोड़े तीखे उच्चारण वाला अक्षर है । शेर, शिला, शौच, शाखा, शोभा, शयन, शिकार, शुद्ध, श्मशान, शरीर, शिखा, शस्त्र, शारदा आदि। ये ‘श’ तालव्य कहे जाते हैं जिनका उच्चारण जीभ के तालू से मिलने पर होता है।
अब चूँकि तालव्य ‘श’ तीखा है, उच्च/तेज वर्ण है, तो एक भारी या गम्भीर स्वभाव वाले ‘ष’ की आवश्यकता समझी गई होगी, जो मूर्धा यानि मुँह के और उच्च स्थान से उच्चारित किया जाए। जो जितना ऊँचा, वह उतना ही श्रेष्ठ, गम्भीर और महान हो जाता है। इसलिए यह ‘ष’ मूर्धन्य कहलाया। इसीलिए जितने भी भारी अक्षर हैं, जैसे ‘ट,ठ,ड,ढ,ण इत्यादि, वे सब अधिकतर ‘ष’ के बाद या साथ ही आते हैं। जैसे- षट्कोण, कष्ट, प्रकोष्ठ, वरिष्ठ, आकर्षण, संश्लिष्ट, विष्णु, षड्यंत्र, षडानन, व्यष्टि, संश्लेषण, गरिष्ठ इत्यादि।
यहाँ यह जानना भी ज़रूरी है कि ‘ष’ दूसरे अक्षरों के साथ भी आता है जैसे- मनीषा, सुषमा, दोषी, परिषद, शीर्षक, श्लेष, भाषा इत्यादि। पर अपनी पूरी गरिमा के साथ!
आशा है इससे आपको ‘श’ और ‘ष’ की ज़रूरत, अंतर और उपस्थिति को समझना सरल हो गया होगा।
एक जानकारी और दी जा सकती है यहाँ। यदि किसी शब्द में स, श, ष में तीनों या दो अक्षर आएँ तो पहले ‘स’ उसके बाद ‘श’ और फिर ‘ष’ आएगा। जैसे- संश्लेषण, विश्लेषण, विशेष, शेष, शोषण इत्यादि। फिर भी कभी-कभी अपवाद मिल ही जाते हैं जैसे षोडश, प्रशंसा आदि।
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