
कल श्री रामलीला प्रचार समिति, मालाड पूर्व, मुंबई के तत्वावधान में आयोजित रामलीला के मंचन को देखने का अवसर मिला। रामलीला देखने का यह कोई पहला अवसर नहीं था। यह सदैव की तरह आनन्द दायक थी। किंतु फिर भी इसमें कुछ नया लगा। इसे यदि केवल धार्मिक मानने की वृत्ति से ऊपर उठकर व्यापक नजरिये से देखा जाए तो अपनी संस्कृति और सभ्यता को याद करने और नयी पीढ़ी को सौंपने के साथ ही इसे शिक्षा प्रदान करने का माध्यम भी बनाया जा सकता है।
वैसे तो राम और लक्ष्मण के ऋषि विश्वामित्र के साथ मिथिला आगमन और राम सीता मिलन का मुख्य विषय था, किंतु इसमें दो प्रसंग, सामान्यतः जिनका मंचन नहीं होता है, सम्मिलित कर लिए गए थे।
उन्होंने आगे बताया कि किसी भी भाषा में शब्दों के एक से अधिक अर्थ आम बात हैं। संस्कृत में भी ऐसा ही है। बलि शब्द का एक अर्थ हनन करना अवश्य है किंतु इसका एक अर्थ और भी है, दान/समर्पण/त्याग।
प्रथम दृश्य था जब विश्वामित्र जी राम को सीता जन्म की कथा सुनाते हैं कि किस प्रकार मिथिला में भीषण अकाल पड़ा था तब राजा जनक ने हल चलाया था। यह प्रसंग तो सबको ज्ञात होगा ही। इसमें दो शिक्षाओं को जोड़ा गया था। पहला जल का महत्व और उसके उचित व्यय और संचय की आवश्यकता तथा दूसरा कर्म और श्रम का महत्व। यानि हाथ पर हाथ रखे कुछ नहीं होता, कर्म और श्रम ही श्रेष्ठ होता है और समस्या से निवारण में सहायक भी।
दूसरा दृश्य था राम के मिथिला नगरागमन पर वहाँ के एक कुष्ठ रोगी पुर्वा के उद्धार का प्रसंग। यह प्रसंग मेरे लिए तो अज्ञात था। इसमें भी दो शिक्षाएँ जोड़ी गयी थीं। पहला उसको कुष्ठ होने का कारण, जिसे उसके द्वारा अपने मात-पिता का तिरस्कार करने के पाप का परिणाम बताया गया। दूसरा छुआछूत से ऊपर उठने का ज्ञान। जिस व्यक्ति से अन्य नागरिक घृणा करते हैं, उसे अपने से दूर रखते हैं, वहीं राम उसके पास ही नहीं जाते उसका स्पर्श भी करते हैं और उसका कोढ़ दूर भी। हमारे चिकित्सक और चिकित्सा कर्मी भी तो यही करते हैं। यहाँ एक दोहा बहुत सुंदरता से सम्मिलित किया गया,
है कोई चांडाल या ऊँचा किसी का वंश है,
आत्मा सबकी उसी परमात्मा का अंश है।
इस प्रकार अपनी संस्कृति के दर्शन के साथ देश, काल, परिस्थिति और आवश्यकता के अनुसार कथानक में हल्के फेरबदल स्वागत और प्रशंसा योग्य लगे।