मनबहलाव: ‘प’ का ‘पुराण’

हिन्दी भाषा का अक्षर ‘प’ एक महत्वपूर्ण अक्षर प्रतीत होता है। ‘प’ से ‘परमात्मा’, ‘प’ से ‘परिवार’, ‘प’ से ‘प्रकृति’, ‘प’ से ‘पवन’, ‘प’ से ‘प्रेम’ इत्यादि शब्द कितने ‘पावन’ और ‘पवित्र’ हैं इसको ‘प्रकट’ करना ‘पूर्णतया’ ‘परिहार्य’ है। इसी ‘प्रसंग’ को ‘पकड़कर’ किया गया एक सूक्ष्म अनुसंधान ‘प्रस्तुत’ है।

‘प’ यानि ‘प्रभात’ से हमारा दिन ‘प्रारम्भ’ होता है और ‘प्रदोषकाल’ ‘पर्यंत’ हमें ‘परमात्मा’, ‘प्रकृति’, ‘पर्यावरण’, ‘परिजन’ एवं ‘प्रियजनों’ से ‘प्रेम’ ‘प्रगाढ़’ करते हुए अपने ‘पठन’-‘पाठन’, ‘पद’, ‘प्रतिष्ठा’ और ‘पैसे’ के ‘प्रवर्द्धन’ और ‘प्रसार’ हेतु ‘प्रयासरत’ रहते हुए ‘परोपकार’ के ‘पथ’ को ‘प्रशस्त’ कर अपने ‘पुण्यों’ को ‘परिवर्धित’ कर ‘प्राणों’ को ‘पवित्र’ रख ‘परलोक’ को ‘पीड़ामुक्त’ बना ‘प्रमोद’ से ‘परिपूर्ण’ रहने के लिए ‘प्रेरित’ करता है।

‘प’ यानि कदाचित् ‘प्रकृति’ ने ‘प्राणी’ का ‘प्रादुर्भाव’ ही ‘परिवार’ के ‘पापी’ ‘पेट’ को ‘पोषित’ करते रहने के लिए ‘पौरुष’ और ‘पुरुषार्थ’ के साथ ‘प्रतिदिन’ ‘प्रयत्नशील’ रह ‘पर्याप्त’ और ‘पौष्टिक’ खाद्य ‘पदार्थों’ के ‘परिचयन’ और ‘प्रबंधन’ के लिए ही किया हो जैसे।

‘प’ ही हमें ‘परियों’ की भांति ‘परिकल्पना’ के ‘पँख’ लगा ‘पक्षियों’ की तरह स्वच्छंद ‘पर्यटन’ करने की ‘प्रेरणा’ देता है, जिससे हमारे अंतःकरण को ‘प्रसन्नता’ की ‘प्राप्ति’ होती है। ‘परन्तु’ किसी को ‘प्रताड़ना’ देकर स्वयं को ‘परपीड़ा’ का ‘प्रसंग’ बनने से ‘परिहार्य’ रह ‘पाप’ के ‘पतन’ से ‘परिरक्षित’ कर ‘पातक’ कहलाने से भी हमें यही ‘प’ रोकता है। यदि कुछ गलत हो भी जाए तो ‘पछतावे’ और ‘प्रायश्चित’ का ‘पथ’ दिखाकर ‘पाप’ से मुक्ति दिला ‘परिजनों’ और ‘प्रियजनों’ के ह्रदय में ‘पुनः’ स्थान भी ‘प’ ही दिलाता है।

ऐसे ‘प’ को ‘प्रणाम’ जो ‘प्राणी’ की ‘प्रतिभिन्न’ और ‘पृथक’-‘पृथक’ ‘प्रकार’ के ‘प्रश्नों’ से ‘पुनः’-‘पुनः’ ‘परीक्षा’ लेता रहता है। परंतु ‘पास’ ‘परीक्षार्थी’ ‘प्रशंसा’, ‘पुरुस्कार’, ‘पारितोषिक’ का ‘पात्र’ बन ‘प्रतिष्ठा’ और ‘पब्लिसिटी’ भी ‘प’ से ही तो ‘पाता’ है।

सबसे ‘प्रधान’ बात कि ‘प्राणी’ को अपनी ‘प्रकृति’, ‘प्रवृति’, ‘प्रक्रिया’, ‘प्रणाली’ और ‘पद्धति’ को ‘पाक’ रखने का ‘प्रयत्न’ कर ‘प्राणों’ को ‘पावन’, ‘पुनीत’ और ‘पवित्र’ बनाकर इस ‘परम्परा’ को ‘प्राणवान’ और ‘पुरोगामी’ रखने की ‘प्रेरणा’ भी ‘प’ से ही मिलती है।

साथ ही अपने अंतर में ‘पनपती’ किसी भी प्रकार की ‘प्रतिशोध’ की ‘पावक’ को ‘पयस्विनी’ या ‘प्रवाहिनी’ में ‘प्रवाहित’ करते हुए ‘पाताल’ के ‘पथ’ पर ‘पुरोगामी’ होने से ‘परिरक्षित’ भी ‘प’ ही करता है।

अच्छा अब ‘प’ के इस ‘पुराण’ का ‘पटाक्षेप’ करते हैं कुछ ‘पयाम’ और ‘प्रतिवेदनों’ के साथ।

पाँच ‘प’, जिनका कभी भूल से भी अनादर न करें:

अ. प्रौढ़: वह व्यक्ति जो आपसे प्रौढ़ है यानि कि उम्र में बड़ा है।

आ. पढ़ाई: वह व्यक्ति जो आपसे अधिक ज्ञान रखता है। यह ज्ञान विषय प्रधान भी हो सकता है।

इ. पद: वह व्यक्ति जो किसी भी प्रकार से पद में, ओहदे में आपसे बड़ा है। यह चाहें व्यावसायिक स्तर पर है या पारिवारिक स्तर पर।

ई. पैसा: वह व्यक्ति जो आपसे अधिक पैसे का स्वामी है यानि कि आपसे अधिक धनी है।

उ. प्रतिष्ठा: वह व्यक्ति जो समाज में आपसे अधिक प्रतिष्ठित और सम्मानित है।

साथ ही साथ जो आपको प्रिय है, और हर वह व्यक्ति आपको प्रिय होना चाहिए जो किसी भी प्रकार से आपसे छोटा है या नीचे है।

पाँच ‘प’, संबंध जिनको खर्च किए पैसे से नहीं अपितु दिए गए समय और प्रशंसा से आँकिए:

अ. पितृ/पितरौ (पिता-माता / पितामह / प्रपितामह)

आ. पति / पत्नी

इ. पुत्र-पुत्री

ई. प्रेमी / प्रेमिका

उ. प्रशंसक

पाँच ‘प’, जिनको को कभी भी अपने मन मस्तिष्क पर हावी न होने दें:

अ. पारिवारिक पृष्ठभूमि: आप किस परिवार के सदस्य हैं, यह आपकी विरासत है, आपके अपने प्रयास का परिणाम नहीं। अतः सौम्य बनिए।

आ. पढ़ाई: ज्ञान पाकर आपको विनम्र बनना चाहिए, न कि अकड़ू या खड़ूस। आपको ज्ञान बांटना चाहिए। किसी का मजाक नहीं बनाना चाहिए।

इ. पैसा: पैसे से सक्षम होने पर आपके अंदर दान और परोपकार की वृत्ति उत्पन्न होनी चाहिए।

ई. पद: आपके अधीनस्थ आपको गुरु और पथप्रदर्शक की तरह देखते हैं अतः व्यवहार से उनके लिए नायक और रहनुमा बनिए, साहब या शासक तो पद से हैं ही आप।

उ. प्रशंसा: प्राप्त प्रशंसा को अहंकार न बनने दें, उससे फूलिए नहीं अपितु नम्र बनिए। अपने को और बेहतर बनाने के लिए प्रयासरत रहिए।

पाँच ‘प’, जिनको सदैव अपने दिल में स्थान दीजिए:

अ. परमात्मा

आ. परिवार

इ. प्रेम

ई. प्रमोद

उ. परोपकार

पाँच ‘प’, जिनसे सदैव बच कर रहिए:

अ. पाप

आ. पतन

इ. प्रमाद

ई. परपीड़ा

उ. प्रताड़ना

पाँच ‘प’, जिनको जीवन से दूर रखिए अथवा शीघ्रातिशीघ्र छुटकारा पाइए:

अ. पछतावा: पाप के पछतावे के स्थान पर उसका प्रायश्चित कर आगे बढ़ना चाहिए।

आ. प्रतिशोध: प्रतिशोध की पावक मात्र आपको क्षय करती है, किसी अन्य को नहीं। अतः क्षमा कीजिए और आगे बढ़िए।

इ. परिमित: अपने को कभी भी सीमाओं में नहीं बांधना चाहिए। यह ब्रह्मांड असीम है, मानव क्षमताएं असीम हैं, अतः आप सीमा में क्यों बंधे।

ई. पराश्रय: आप जिस स्थिति में हैं, अपने को सक्षम मानिए। किसी दूसरे पर आश्रित होना आपके स्व और आत्मसम्मान को कम करता है।

उ. पराधीन: पराधीनता केवल शासन से नहीं होती। आपको हर प्रकार की पराधीनता अस्वीकार करनी चाहिए चाहें वह काम की हो, क्रोध की हो, लोभ की हो, मोह की हो या फिर मस्तिष्क या विचारों की।

पाँच ‘प’ के लिए सदैव प्रस्तुत, प्रयासशील और प्रवृत्त रहिए:

अ. पुरोगामी: सदैव आगे बढ़ने के लिए प्रयासशील रहिए।

आ. परोपकार: परोपकार की भावना अंतर में शांति और संतुष्टि को प्रकाशित करने में सहायक होती है।

इ. प्रणयन: अपने भीतर के रचनाकार को जीवित रखिए एवं कुछ नया करने के लिए प्रयासरत रहिए।

ई. पठन: ज्ञान प्राप्त करने का कोई अंत नहीं अतः कोई भी उम्र या समय हो, पठन के सर्वथा उपयुक्त है।

उ. पाठन: ज्ञान ही एकमात्र वस्तु है जो बाँटने से बढ़ता है। अतः पठन के साथ ही पाठन भी हमारी दैनिक दिनचर्या का भाग होना चाहिए।

यह लेख ‘प’ के ‘प्रभाव’ को ‘पूर्ण’ ‘परिणति’ ‘प्रदान’ कर केवल ‘प्रतीकात्मक’ ‘प्रस्तुति’ मात्र है। आप इसके शोध में जितने ‘प्रवृत’ और ‘प्रयत्नशील’ रहेंगें, इसको उतना ही ‘परिष्कृत’ और ‘प्रसारित’ कर इसके ‘पदार्थ-तत्व’ के ‘पीयूष’ का ‘पान’ कर पाएंगे।

Advertisement

4 विचार “मनबहलाव: ‘प’ का ‘पुराण’&rdquo पर;

अपनी टिप्पणी और सुझाव दें:

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  बदले )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  बदले )

Connecting to %s